चुनाव बहिष्कार समस्या का हल नहीं बल्कि खुद के लिए समस्या खड़ा करना है बहिष्कार की धमकी देना सीधे सीधे प्रत्याशियों को ब्लेकमैल करने जैसा है
संवाद यात्रा/जांजगीर चांपा/छत्तीसगढ़/अनंत थवाईत
चुनावी मौसम मे एक ओर हर राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता अपने अपने प्रत्याशी को जीताने हर संभव प्रयास कर रहे है वहीं दूसरी ओर कुछ मुट्ठी भर लोग अपने मन की भड़ास निकालते हुए प्रत्याशियों के खिलाफ अपने मन की बात कर रहे है । मन की बात करने का अधिकार सबको है करते रहे कोई बात नहीं । लेकिन कुछ लोग चुनाव का बहिष्कार की बात कर रहे है वहां कहां तक उचित है इस बारे मे उन्हें थोड़ा ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए। अगर कोई प्रत्याशी किसी को पसंद नहीं है तो क्या चुनाव बहिष्कार करने से समस्या हल हो जाएगी? हमारे विचार से तो चुनाव बहिष्कार की धमकी देना सीधे सीधे प्रत्याशियों को ब्लेकमैल करने जैसा है ।और खुद के लिए समस्या खड़ा करना है । हम ऐसा इसलिए कह रहे है कि पिछले चुनाव में चांपा के निकटस्थ गांव मड़वा मे कुछ लोगों ने ग्रामीणों को उकसा कर चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर दी थी।जिसके चलते गांव के लोगों ने मतदान नहीं किया। बाद मे ये गांव वाले समस्या को लेकर जब विधायक के पास जाते थे तो इन्हें शर्मिंदा होना पड़ता था। और इनके उपर सवाल उठता था कि जब आप लोगों ने किसी को वोट नहीं दिया है तो फिर किस उम्मीद मे अपनी समस्या को हल करना चाहते है ? विधायक के पास काम लेकर जाने वाले इन गांव वालों को निराश होकर लौटना पड़ता था। और अपने बहिष्कार के निर्णय पर पछताना पड़ता था। बहिष्कार करने के फलस्वरूप गांव मे पांच वर्षों में कोई विशेष उल्लेखनीय विकास कार्य भी नहीं हुआ । इसलिए हम यह बात कह रहे है कि सार्वजनिक रूप से चुनाव बहिष्कार की घोषणा करके स्वयं को चिन्हांकित नहीं करना चाहिए और न ही गांव वालों के लिए समस्या पैदा करना चाहिए।







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